Saturday, November 21, 2009

संपादक की कलम से

अभिनन्दनीय का अभिनन्दन करना हमारी अक्षर-परम्परा है। इस परम्परा को निबाहने की हमारी सांस्कृतिक जिम्मेवारी है। इस जिम्मेवारी को निबाहने का अवसर मुझे मिल गया जब ‘डाॅ। मधुकर गंगाधर: संदर्भ और साधना’ ग्रंथ के संपादन का प्रस्ताव मेरे सामने आया। मैं प्रसन्न हूँ कि डाॅ. मधुकर गंगाधर का अभिनन्दन, इस ग्रंथ के बहाने, हो रहा है।
डाॅ. मधुकर गंगाधर को मैं वर्षों से जानता था। पत्रा-पत्रिकाओं में उनकी कुछ कहानियाँ पढ़ी भी थीं मैंने, पर शायद अपरिचय के आंदोलित समुद्र-तट पर खड़ा था मैं, पर भेंट अब हुई जब वे हवा-सेवा से मुक्त होकर दिल्ली आ बसे। उनके दर्शन कर, बातचीत कर कृतार्थ हुआ, यह कहना एक छोटी-सी बात होगी। यह कहना सही होगा कि उनकी ऊर्जा से ऊज्र्वसित हुआ, रोमांचित हुआ। क्योंकि मधुकर गंगाधर जैसा व्यक्तित्व (विपरीत) हवा में उनतीस वर्ष गुजार कर आज भी लोगों की खट्टी-मीठी यादों में हैं। वे भूले नहीं जा सकते और न भुलाये जा सकते हैं। यही उनका किरदार है जो पहले जैसा था, आज भी, अब भी, वैसा ही है। मधुकर गंगाधर ‘लोक-सत्य के आग्रह से उद्दीप्त व्यक्तित्व’ का नाम है। लोक-परंपरा की ताकत से ही मधुकर ने अपने कथा-उपन्यास पात्रों को जो अक्खड़पन दिया है, वह वस्तुतः उनका ही पर्याय है, ऐसा मानने के पर्याप्त कारण हैं। इसी अक्खड़ कवि-व्यक्तित्व की साधना का समुच्चय है यह ग्रंथ, जिसमें उनके अक्षर-व्यक्तित्व, उनके वागर्थ-वैभव के बहाने, जिसका मूल्यांकन-परिमूल्यांकन- विश्लेषण, अद्यतन उपलब्ध कृतियों के आधार पर, कतिपय प्रज्ञा-पुरुषों ने किया, यह एक महत्त्वपूर्ण बात है।
किसी कवि को ठीक-ठीक जान पाना बड़ा कठिन होता है। उनकी कविताओं को उनकी अलग-अलग पुस्तकों में समाहित अलग-अलग कविताओं को पढ़कर उन्हें जान लेने का भ्रम भले ही हो, पर ऐसा जानना सर्वदा सही जानना नहीं होता। कविता समय होती है और समय की पहचान भी, तो कविताएँ पढ़कर आप तत्कालीन समय को भले जान लें, पर कवि को, जो कविता का अतीत जीता है, वर्तमान भुगतता है और भविष्य के प्रति आश्वस्त होने के लिए स्वयं को ऊर्जस्वित करता है, समग्ररूपेण जानना सहज-सरल नहीं होता।
कवि मधुकर गंगाधर को हम कितना जानते हैं, इस प्रश्न का सही उत्तर शायद ही किसी के पास हो। उनकी, खुद को आइने दिखातीं, कविताएँ इतनी सशक्त और समृद्ध हैं कि उनको एक ‘अच्छा’ कवि मानने के लिए लोग विवश हो जाते हैं, पर उन्होंने प्रचुर कथा-उपन्यास-लेखन भी किया है। एक कवि उपन्यास लिखने की ओर क्यों प्रवृत्त होता है? नागार्जुन ने कभी कहा था कि उपन्यास लिखने से धन बरसता है। मधुकर गंगाधर ने आठ उपन्यास लिखे। उन्हें कितना धन मिला, यह तो मुझे मालूम नहीं, पर पाठकों ने उन्हें सराहा, धन देकर नहीं, सम्मान देकर। फलतः आज भी उनका लेखन उनकी स्मृतियों में है। यह एक लेखक के लिए आश्वस्तिकर उपलब्धि है।
ऐसे में मुझे कबीर याद आते हैं।
सिर से पैर तक मस्त मौला, स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़, चाहने वालों के साथ निरीह, बनने वालों के आगे प्रचण्ड, दिल से साफ, दिमाग से दुरुस्त, भीतर से कोमल, बाहर से कठोरµऐसे हैं हमारे गंगाधर मधुकर, कुछ कम-कुछ अधिक कबीर की तरह। अभूतपूर्व एवं अभिनव कवि-प्रतिभा की दृष्टि से देखें, तो एक विद्रोही कवि के रूप में मधुकर गंगाधर समोद्भूत होते हैं कविता-प्रांगण में। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ को मस्ती का कवि कहा गया है, पर वे कवि बच्चन और भगवतीचरण वर्मा से अलग किस्म की मस्ती के कवि हैं। इन दोनों में वैयक्तिक चेतना का प्राधान्य है, पर दिनकर में सामाजिक मंगलाकांक्षा की मस्ती है। कवि मधुकर गंगाधर में यही सामाजिक मंगलाकांक्षा है, जो दिनकर में है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि कवि मधुकर को महाकवि दिनकर के समतुल्य रखने का आग्रह नहीं; बल्कि एक विनम्र निवेदन है कि दोनों तरफ है आग, सामाजिक मंगलेच्छा की, बराबर लगी हुई।
कवि मधुकर गंगाधर कथाकार भी हैं, यह एक सर्वमान्य तथ्य है। उनके समकालीन कथाकार इस बात की ताईद करते हैं कि”मधुकर गंगाधर का रचना-संसार ग्रामीण जीवन में तात्कालिक परिस्थितियों से आंदोलन, लाखों युवकों की बेरोजगारी के दंश से पीड़ित, लालफीताशाही, सांप्रदायिकता, घुसखोरी, अफसरशाही के खिलाफ सही और निर्भीक इजहार है। इनकी कहानियों में बढ़िया कारों, बढ़िया क्लबों में होने वाली रंगरेलियाँ, बढ़िया घरों में होनेवाली बेकारी और आभिजात्य महानुभावों और गुदाज शरीरों के किये जाने वाले बेस्वाद इश्कों की दुर्गन्ध नहीं है। इन्होंने अपने समय के सजग कलाकारों की तरह मामूली आदमियों की गैर-मामूली कहानियाँ लिखी हैं।“ (मधुकर सिंह)
यही कारण है कि वे ‘नयी कहानी’ के झंडाबरदार भी माने गए, क्योंकि इन्होंने आखिरी पंक्ति के आखिरी आदमी की हालत का पर्दाफाश किया था। इनके लेखन में न तो अनिश्चय था और न अस्तव्यस्तता। ढिबरी, शेर छाप कुर्सी और भीड़ के आगे भीड़ के पीछे आदि कहानियों में मधुकर गंगाधर ने अपनी सबसे अलग और भारी आवाज से ‘चुप’ रहे लोगों को अपनी वाणी दी है, उन्हें ऊर्जस्वित किया है, ताकि रेणु का मैला आँचल धुला-धुला-सा लगे।
उनकी कहानियाँ मधुकर गंगाधर का परिचय देती हैं या उपन्यास, यह सर्वान्ततः नहीं कहा जा सकता। उनकी कहानियाँ ‘गूंगी’ नहीं हैं और न ‘ठण्डा बयान’ भर, तो भला उपन्यास क्यों न मुखर होंगे। इनके उपन्यास महाकाव्यात्मक उपन्यास हैं, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। ‘दुख ही जीवन की कथा रही’ का प्रतीक एक आंचलिक उपन्यास ‘सुबह होने तक’ को तो ‘उत्तर अंगप्रदेश का शोकगीत’ तक कहा गया है जो मनुष्य को पलायन या वैराग के राग से नहीं, अपितु मनुष्य में कर्मों के प्रति संघर्ष-चेतना भरता है, असीम ऊर्जा और क्षमतावान बनाता है।
फिर भी, मधुकर गंगाधर की अहंकार-शून्यता, उनके अक्खड़पन के परिप्रेक्ष्य में, हमें एक अलग ही व्यक्तित्व का भान देती है। उनमें समत्व की भावना के प्रति विश्वास है, इसलिए अजातशत्राु हैं, ऐसा कहना लीक से थोड़ा हटकर होगा, क्योंकि उन्होंने दोस्त से अधिक दुश्मन बनाए, पर सत्य यह भी है कि उस समय के उनके दुश्मन अब दोस्त हो गए हैं।
मधुकर गंगाधर का सृजन-क्षितिज बहुत बड़ा है। दस कहानी-संग्रह, चार कविता-संग्रह, तीन संस्मरण-पुस्तक, आठ उपन्यास, तीन नाटक और चार अन्यान्य विधाओं में रचित उनकी कृतियों की कुल संख्या बत्तीस तक पहुँचती है। वे संपादक भी हैं। पहले ‘तक्षक’ निकाला था, अब ‘नया’ निकालते हैं।
सनीचर-संपादक श्री ललित को एक वार्ता-क्रम में मधुकर गंगाधर ने बताया था कि ‘तारीफ कीजिएगा, तो समझूँगा आपको एक मूर्ख मिल गया। निन्दा कीजिएगा, तो समझूँगा, मुझको मिल गया।’ मैंने इस संपादकीय में उनकी प्रशंसा नहीं की है, केवल सच का बयान भर किया है। डाॅ. मधुकर में सच को सच कहने का पुरजोर साहस है, इसीलिए मेरे इस ‘सच’ के बयान से उन्हें प्रसन्न होना चाहिए। निन्दा करने जैसी कोई बात मेरे जेहन में नहीं आई।
डाॅ. रमेश नीलकमल
09430980871

जिसको गुरू माना उसके नाम। यह व्लाग उन्हीं को समर्पित हैं। आज से मै आप सभी लोगों को उनकी पुस्तक डॉ मधुकर गंगाधर संदर्भ और साधना में प्रकाशित लेखों से रू ब रू करा रहा हूं.